गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 144

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तेरहवां अध्याय
आत्मानात्म-विवेक
68. सुधार का मूलाधार

6. बच्चे की प्रशंसा भी करते हैं, तो देहपक्ष को लेकर और उसकी निंदा भी देहपक्ष को लेकर ही करते हैं। कहते हैं- "कैसा गंदा है रे" इससे बच्चे को कितनी चोट लगती है। कैसा मिथ्या आरोप है यह! गंदगी है, यह सही है। उसे साफ करना चाहिए, यह भी सही है। लेकिन इस गंदगी को सहज साफ न करके उस बच्चे पर इस तरह आघात किया जाता है। बच्चा उसे सहन नहीं कर पाता। वह बड़ा दुःखी हो जाता है। उसके अंतरंग में, उसकी आत्मा में स्वच्छता, निर्मलता भरी है, तो भी उस पर गंदे होने का यह कैसा व्यर्थ आरोप! वास्तव में वह लड़का गंदा नहीं है। जो अत्यंत सुंदर मधुर, पवित्र, प्रिय परमात्मा है, वही वह है। उसी का अंश उसमें विद्यमान है। परंतु उसे कहते हैं 'गंदा।' उस गंदगी से उसका क्या संबंध है; यह बात बच्चे की समझ में नहीं आती, इसलिए वह इस आघात को सहन नहीं कर पाता। उसके चित्त में क्षोभ होता है और क्षोभ उत्पन्न होने पर सुधार नहीं होता। अतः उसे अच्छी तरह समझाकर साफ-सुथरा रखना चाहिए।

7 इसके विपरीत कृति करके उस लड़के के मन पर हम यह अंकित करते हैं कि वह देह हैं शिक्षा-शास्त्र में इसे एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत मानना चाहिए। गुरु को यह भावना रखनी चाहिए कि मैं जिसे पढ़ा रहा हूं, वह सर्वांग सुंदर है। सवाल गलत होने पर मुंह पर थप्पड़ लगाते हैं। उस चांटे का और सवाल की गलती का क्या संबंध? स्कूल में देर से आया, तो लगाया चांटा। चांटे से उसके गाल पर रक्ताभिसरण तेज होने लगेगा, पर इससे क्या वह स्कूल में जल्दी आयेगा? खून की यह तेजी क्या यह बतला सकेगी कि इस समय कितने बजे हैं? बल्कि सच पूछिए कि इस तरह मार-पीट करके हम उस बच्चे की पशुवृत्ति ही बढ़ाते हैं। 'तुम यह देह ही हो'- यह भावना पक्की करते हैं। उसका जीवन डर की भावना पर खड़ा किया जाता है। यदि हमें सचमुच सुधार करना है, तो वह इस तरह जबरदस्ती करके देहासक्ति बढ़ाने से कभी नही हो सकता। जब मैं यह समझ लूंगा कि मैं देह से भिन्न हूं, तभी मेरा सुधार हो सकेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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