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तेरहवां अध्याय
आत्मानात्म-विवेक
68. सुधार का मूलाधार
6. बच्चे की प्रशंसा भी करते हैं, तो देहपक्ष को लेकर और उसकी निंदा भी देहपक्ष को लेकर ही करते हैं। कहते हैं- "कैसा गंदा है रे" इससे बच्चे को कितनी चोट लगती है। कैसा मिथ्या आरोप है यह! गंदगी है, यह सही है। उसे साफ करना चाहिए, यह भी सही है। लेकिन इस गंदगी को सहज साफ न करके उस बच्चे पर इस तरह आघात किया जाता है। बच्चा उसे सहन नहीं कर पाता। वह बड़ा दुःखी हो जाता है। उसके अंतरंग में, उसकी आत्मा में स्वच्छता, निर्मलता भरी है, तो भी उस पर गंदे होने का यह कैसा व्यर्थ आरोप! वास्तव में वह लड़का गंदा नहीं है। जो अत्यंत सुंदर मधुर, पवित्र, प्रिय परमात्मा है, वही वह है। उसी का अंश उसमें विद्यमान है। परंतु उसे कहते हैं 'गंदा।' उस गंदगी से उसका क्या संबंध है; यह बात बच्चे की समझ में नहीं आती, इसलिए वह इस आघात को सहन नहीं कर पाता। उसके चित्त में क्षोभ होता है और क्षोभ उत्पन्न होने पर सुधार नहीं होता। अतः उसे अच्छी तरह समझाकर साफ-सुथरा रखना चाहिए।
7 इसके विपरीत कृति करके उस लड़के के मन पर हम यह अंकित करते हैं कि वह देह हैं शिक्षा-शास्त्र में इसे एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत मानना चाहिए। गुरु को यह भावना रखनी चाहिए कि मैं जिसे पढ़ा रहा हूं, वह सर्वांग सुंदर है। सवाल गलत होने पर मुंह पर थप्पड़ लगाते हैं। उस चांटे का और सवाल की गलती का क्या संबंध? स्कूल में देर से आया, तो लगाया चांटा। चांटे से उसके गाल पर रक्ताभिसरण तेज होने लगेगा, पर इससे क्या वह स्कूल में जल्दी आयेगा? खून की यह तेजी क्या यह बतला सकेगी कि इस समय कितने बजे हैं? बल्कि सच पूछिए कि इस तरह मार-पीट करके हम उस बच्चे की पशुवृत्ति ही बढ़ाते हैं। 'तुम यह देह ही हो'- यह भावना पक्की करते हैं। उसका जीवन डर की भावना पर खड़ा किया जाता है। यदि हमें सचमुच सुधार करना है, तो वह इस तरह जबरदस्ती करके देहासक्ति बढ़ाने से कभी नही हो सकता। जब मैं यह समझ लूंगा कि मैं देह से भिन्न हूं, तभी मेरा सुधार हो सकेगा।
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