दूसरा अध्याय
सब उपदेश थोड़े में: आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि
8. दोनों का मेल साधने की युक्ति: फलत्याग
13. भगवान ने जीवन के सिद्धान्त तो बताये, किन्तु केवल सिद्धान्त बता देने से काम पूरा नहीं होता। गीता में वर्णित ये सिद्धांत तो उपनिषदों और स्मृतियों में पहले से ही थे। गीता ने उन्हीं को फिर से उपस्थित किया, इसमें गीता की अपूर्वता नहीं है। उसकी अपूर्वता तो यह बतलाने में है कि इन सिद्धान्तों को आचरण में कैसे लायें। इस महाप्रश्न को हल करने में ही गीता की कुशलता है। जीवन के सिद्धांतो को व्यवहार में लाने की जो कला या युक्ति है, उसी को ‘योग’ कहते हैं। ‘साख्य’ का अर्थ है- ‘सिद्धान्त’ अथवा ‘शास्त्र’ और ‘योग’ का अर्थ है ‘कला’। ज्ञानदेव अपनी साक्षी देते हैं- योगियां साधली जीवन-कळा। ‘योगियों ने जीवन-कला साध ली है।’ गीता सांख्य और योग, शास्त्र और कला, दोनों से परिपूर्ण है। शास्त्र और कला, दोनों के योग से जीवन-सौंदर्य खिलता है। कोरा शास्त्र हवा में रहेगा। संगीत का शास्त्र समझ तो लिया, किन्तु यदि कंठ से संगीत प्रकट करने की कला न सधी, तो नाद-ब्रह्म की सजावट नहीं होगी। यही कारण है कि भगवान ने सिद्धान्तों के साथ-साथ उनका विनियोग सिखाने वाली कला भी बतायी है। भला कौन-सी है वह कला? देह को तुच्छ मानकर, आत्मा की अमरता और अखंडता पर दृष्टि रखकर, स्वधर्म का आचरण करने की कौन सी है वह कला? जो कर्म करते हैं, उनकी वृत्ति दुहरी होती है। एक यह कि अपने कर्म का फल हम अवश्य चखेंगे। वह हमारा अधिकार है। इसके विपरीत दूसरी यह कि यदि हमें फल चखने को न मिले, तो हम कर्म ही नहीं करेंगे। गीता तीसरी ही वृत्ति बताती है। वह कहती है- ‘‘कर्म तो अवश्य करो, पर फल में अपना अधिकार मत मानो’’ जो कर्म करता है, उसे फल का अधिकार अवश्य है। परन्तु तुम उस अधिकार को स्वेच्छा से छोड़ दो। रजोगुण कहता है- ‘‘लूंगा तो फल के सहित ही लूंगा।’’ और तमोगुण कहता है- ‘‘छोडूंगा तो कर्म समेत ही छोडूंगा।’’ ये दोनों एक-दूसरे के भाई ही हैं। अतः तुम इन दोनों से ऊपर उठकर शुद्ध सत्त्वगुणी बनो अर्थात कर्म तो करो, पर फल को छोड़ दो और फल को छोड़कर कर्म करो। पहले और पीछे कहीं भी फल की इच्छा मत रखो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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