दूसरा अध्याय
सब उपदेश थोड़े में: आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि
8. दोनों का मेल साधने की युक्ति: फलत्याग
14. ‘फल की इच्छा न रखो’- ऐसा कहते हुए गीता यह भी जताती है कि कर्म उत्कृष्ट होना चाहिए। सकाम पुरुष कर्म की अपेक्षा निष्काम पुरुष का कर्म अधिक अच्छा होना चाहिए। यह अपेक्षा उचित ही है; क्योंकि सकाम पुरुष तो फलायुक्त है इसलिए फलसम्बन्धी स्वप्न-चिन्तन में उसका थोड़ा-बहुत समय और शक्ति अवश्य लगेगी। परन्तु फलेच्छारहित पुरुष तो प्रत्येक क्षण और सारी शक्ति कर्म में ही लगी रहेगी। नदी को छुट्टी नहीं, हवा को विश्राम नहीं, सूर्य सदैव जलना ही जानता है। इसी प्रकार निष्काम कर्ता सतत सेवा-कर्म को ही जानता है। यदि ऐसे निरन्तर कर्मरत पुरुष का कर्म उत्कृष्ट न होगा, तो किसका होगा? फिर चित्त की समता एक बड़ा ही कुशल गुण है और वह तो निष्काम पुरुष की बपौती ही है। किसी बिलकुल बाहरी कारीगरी के काम में भी हस्तकौशल के साथ यदि चित्त के समत्व का योग हो, तो जाहिर है कि वह काम और भी अधिक सुन्दर बनेगा। इसके अतिरिक्त सकाम और निष्काम पुरुष की कर्म-दृष्टि में जो अंतर है, वह भी निष्काम पुरुष के कर्म के अधिक अनुकूल है। सकाम पुरुष कर्म की ओर स्वार्थ दृष्टि से देखता है। ‘मेरा ही कर्म और मेरा ही फल’ इस दृष्टि के कारण यदि कर्म की ओर से उसका ध्यान थोड़ा हट भी गया, तो उसमें उसे नैतिक दोष नहीं मालूम होता। बहुत हुआ तो व्यावहारिक दोष जान पड़ता है। परन्तु निष्काम पुरुष की तो अपने कर्म के विषय में नैतिक कर्तव्य-बुद्धि रहती है। अतः वह तत्परता से इस बात की सावधानी रखता है कि अपने काम में थोडी सी भी कमी न रह जाये। इसलिए भी उसका कर्म अधिक निर्दोष होगा। किसी भी तरह देखिए, फल-त्याग अत्यंत कुशल एवं सफल तत्त्व सिद्ध होता है। अतः फलत्याग को ‘योग’ अथवा ‘जीवन की कला’ कहना चाहिए। 15. यदि निष्काम कर्म की बात छोड़ दें, तो भी प्रत्यक्ष कर्म में जो आनन्द है, वह उसके फल में नहीं है! स्वकर्म करते हुये जो एक प्रकार की तन्मयता होती है, वह आनन्द का एक झरना ही है। चित्रकार से कहिए- ‘‘चित्र मत बनाओ, इसके लिए तुम चाहे जितने पैसे ले लो‘‘, तो वह नहीं मानेगा। किसान से कहिए ‘‘खेत पर मत जाओ, गायें मत चराओ, मोट मत चलाओ; तुम जितना कहोगे, उतना अनाज तुम्हें दे देंगे।’’ यदि वह सच्चा किसान होगा तो वह यह सौदा पसन्द नहीं करेगा। किसान प्रातः काल खेत पर जाता है। सूर्यनारायण उसका स्वागत करते हैं। पक्षी उसके लिए गाना गाते हैं। गाय-बैल उसके आसपास घिरे रहते हैं। वह प्रेम से उन्हें सहलाता है। जो पेड़-पौधे लगाये हैं, उनको भर नजर देखता है। इन सब कामों में एक सात्त्विक आनन्द है। यह आनन्द ही उस कर्म का मुख्य और सच्चा फल है। इसकी तुलना में उसका बाह्य फल बिलकुल ही गौण है। गीता जब मनुष्य की दृष्टि कर्म-फल से हटा लेती है, तो वह इस तरकीब से कर्म में उसकी तन्मयता सौगुना बढ़ा देती है। फल-निरपेक्ष पुरुष की कर्मगत तन्मयता सामाधि की कोटि की होती है। इसलिए उसका आनन्द औरों से सौगुना अधिक होता है। इस तरह देखें तो यह बात तुरन्त समझ में आ जाती है कि निष्काम कर्म स्वतः ही एक महान फल है। ज्ञानदेव ने यह ठीक ही पूछा है- वृक्ष में फल लगते हैं, पर फल में अब और क्या फल लगेंगे? इस देह रूपी वृक्ष में निष्काम स्वधर्माचारण जैसा सुन्दर फल लग चुकने पर अब अन्य किस फल की और क्यों अपेक्षा रखें ? किसान खेत में गेहूँ बोये और गेहूँ बेचकर ज्वार की रोटी क्यों खाये? सुस्वादु केले लगाये और उन्हें बेचकर मिर्च क्यों खाये? अरे भाई, केले ही खाओ न! पर लोकमत को यह स्वीकार नहीं। केले खाने का भाग्य पाकर भी लोग मिर्च पर ही टूटते हैं। गीता कहती है- ‘‘तुम ऐसा मत करो, कर्म ही खाओ, कर्म ही पियो और कर्म ही पचाओ।’’ कर्म करने में ही सबकुछ आ जाता है। बच्चा खेलने के आनन्द के लिए खेलता है। इससे उसे व्यायाम का फल सहज ही मिल जाता है। परन्तु उस फल की ओर उसका ध्यान नहीं रहता। उसका सारा आनन्द उस खेल में ही रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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