बारहवां अध्याय
सगुण-निर्गुण-भक्ति
62. निर्गुण के अभाव में सगुण भी सदोष
15. बुद्धदेव के ध्यान में यह बात आ गयी थी। इसीलिए उन्होंने तीन प्रकार की निष्ठाएं बतायी हैं। पहले व्यक्तिनिष्ठा हो। उसमें से तत्त्वनिष्ठा। और यदि एकाएक तत्त्वनिष्ठा न हो, तो कम-से-कम संघ-निष्ठा उत्पन्न होनी चाहिए। एक व्यक्ति के प्रति जो आदर था‚ वह दस-पंद्रह के लिए होना चाहिए। संघ के प्रति यदि सामुदायिक प्रेम न होगा तो आपस में अनबन होगी‚ झगड़े होंगे। व्यक्ति-शरणता मिटकर संघ-शरणता उत्पन्न होनी चाहिए और फिर सिद्धांत-शरणता आनी चाहिए। इसीलिए बौद्ध-धर्म में तीन प्रकार की शरणागति बतायी गयी है- बुद्धं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। पहले व्यक्ति के प्रति प्रीति हो‚ फिर संघ के प्रति; परंतु ये दोनों निष्ठाएं अस्थिर ही हैं। अंत में सिद्धांत-निष्ठा उत्पन्न होनी चाहिए‚ तभी संस्था लाभदायी हो सकेगी। स्फूर्ति का स्त्रोत यद्यपि सगुण में शुरू हुआ‚ तो भी वह निर्गण-सागर में जाकर मिलना चाहिए। निर्गुण के अभाव से सगुण सदोष हो जाता है। निर्णय की मर्यादा सगुण को समतोल रखती है‚ इसके लिए सगुण‚ निर्गुण का आभारी है।
16. हिंदू‚ ईसाई‚ इस्लाम आदि सभी धर्मों में किसी-न-किसी रूप में मूर्ति-पूजा प्रचलित है। भले ही वह नीचे दर्जे की मानी गयी हो‚ तो भी मान्य है और महान है। मूर्ति-पूजा जब तक निर्गुण की सीमा में रहती है‚ तभी तक वह निर्दोष रहती है। परंतु इस मर्यादा के छूटते ही सगुण सदोष हो जाता है। निर्गुण की मर्यादा के अभाव में सारे धर्मों के सगुण रूप अवनति को प्राप्त हो गये हैं। पहले यज्ञयाग में पशुहत्या होती थी। आज भी शक्ति-देवी को बलि चढ़ाते हैं। यदि मूर्ति-पूजा का अत्याचार हो गया। मर्यादा को छोड़कर मूर्ति-पूजा गलत दिशा में चली गयी। यदि निर्गुण-निष्ठा की मर्यादा रहती, तो फिर यह अंदेशा नहीं रहता।
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