बारहवां अध्याय
सगुण-निर्गुण-भक्ति
62. निर्गुण के अभाव में सगुण भी सदोष
13. जैसे सगुण-उपासना के पक्ष में मैंने सुलभता और सुरक्षितता रूपी वजन डाल दिया‚ वैसे ही निर्गुण के पक्ष में भी डाल सकता हूँ। निर्गुण में एक मर्यादा रहती है। उदाहरणार्थ‚ हम भिन्न-भिन्न कामों के लिए, सेवा के लिए संस्था स्थापित करते हैं। संस्थाएं शुरू में व्यक्ति को लेकर बनती हैं। वह व्यक्ति मुख्य आधार रहता है। संस्था पहले व्यक्तिनिष्ठ रहती है। परंतु जैसे-जैसे उसका विकास होता जाये‚ वैसे-वैसे वह व्यक्तिनिष्ठ न रहकर तत्त्वनिष्ठ होती जानी चाहिए। यदि उसमें ऐसी तत्त्वनिष्ठा उत्पन्न हुई‚ तो स्फूर्तिदाता का लोप होते ही संस्था में अंधेरा छा जाता है। मैं अपना प्रिय उदाहरण दूं। चरखे की माल टूटते ही सूत कातना तो दूर‚ कता हुआ सूत लपेटना भी संभव नहीं होता। व्यक्ति का आधार टूटते ही वैसी ही दशा उस संस्था की हो जाती है। फिर वह अनाथ हो जाता है पर यदि व्यक्ति-निष्ठा तत्त्व-निष्ठा पैदा हो जाये, तो फिर ऐसा नहीं होगा।
14. सगुण को निर्गुण की सहायता चाहिए। कभी तो व्यक्ति से‚ आकार से‚ निकलकर बाहर जाने का अभ्यास करना चाहिए। गंगा हिमालय से‚ शंकर के जटाजूट से निकली‚ परंतु वहीं थम नहीं गयी। जटाजूट छोड़कर वह हिमालय की गिरि-कंदराओं’ घाटियों‚ जंगलों को पार करती हुई सपाट मैदान में कल-कल बहती हुई जब आयी, तभी वह विश्वजनों के काम आ सकी। इसी प्रकार व्यक्ति का आधार टूट जाने पर भी तत्त्व के मजबूत खंभों पर खड़ी रहने के लिए संस्था को तैयार रहना चाहिए। कमान बनाते हैं‚ तो पहले उसे आधार देते हैं‚ परंतु बाद में आधार निकाल लेना होता है। आधार के निकाल डालने पर जब मेहराब टिकी रहती है‚ तभी समझा जाता है कि वह आधार सही था। यह तो ठीक है कि पहले स्फूर्ति का प्रवाह सगुण से चला‚ परंतु अंत में उसकी परिपूर्णता तत्त्वनिष्ठा में‚ निर्गुण में होनी चाहिए। भक्ति के उदर से ज्ञान का जन्म होना चाहिए। भक्ति रूपी लता में ज्ञान के पुष्प खिलने चाहिए।
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