गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 132

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बारहवां अध्याय
सगुण-निर्गुण-भक्ति
62. निर्गुण के अभाव में सगुण भी सदोष

13. जैसे सगुण-उपासना के पक्ष में मैंने सुलभता और सुरक्षितता रूपी वजन डाल दिया‚ वैसे ही निर्गुण के पक्ष में भी डाल सकता हूँ। निर्गुण में एक मर्यादा रहती है। उदाहरणार्थ‚ हम भिन्न-भिन्न कामों के लिए, सेवा के लिए संस्था स्थापित करते हैं। संस्थाएं शुरू में व्यक्ति को लेकर बनती हैं। वह व्यक्ति मुख्य आधार रहता है। संस्था पहले व्यक्तिनिष्ठ रहती है। परंतु जैसे-जैसे उसका विकास होता जाये‚ वैसे-वैसे वह व्यक्तिनिष्ठ न रहकर तत्त्वनिष्ठ होती जानी चाहिए। यदि उसमें ऐसी तत्त्वनिष्ठा उत्पन्न हुई‚ तो स्फूर्तिदाता का लोप होते ही संस्था में अंधेरा छा जाता है। मैं अपना प्रिय उदाहरण दूं। चरखे की माल टूटते ही सूत कातना तो दूर‚ कता हुआ सूत लपेटना भी संभव नहीं होता। व्यक्ति का आधार टूटते ही वैसी ही दशा उस संस्था की हो जाती है। फिर वह अनाथ हो जाता है पर यदि व्यक्ति-निष्ठा तत्त्व-निष्ठा पैदा हो जाये, तो फिर ऐसा नहीं होगा।

14. सगुण को निर्गुण की सहायता चाहिए। कभी तो व्यक्ति से‚ आकार से‚ निकलकर बाहर जाने का अभ्यास करना चाहिए। गंगा हिमालय से‚ शंकर के जटाजूट से निकली‚ परंतु वहीं थम नहीं गयी। जटाजूट छोड़कर वह हिमालय की गिरि-कंदराओं’ घाटियों‚ जंगलों को पार करती हुई सपाट मैदान में कल-कल बहती हुई जब आयी, तभी वह विश्वजनों के काम आ सकी। इसी प्रकार व्यक्ति का आधार टूट जाने पर भी तत्त्व के मजबूत खंभों पर खड़ी रहने के लिए संस्था को तैयार रहना चाहिए। कमान बनाते हैं‚ तो पहले उसे आधार देते हैं‚ परंतु बाद में आधार निकाल लेना होता है। आधार के निकाल डालने पर जब मेहराब टिकी रहती है‚ तभी समझा जाता है कि वह आधार सही था। यह तो ठीक है कि पहले स्फूर्ति का प्रवाह सगुण से चला‚ परंतु अंत में उसकी परिपूर्णता तत्त्वनिष्ठा में‚ निर्गुण में होनी चाहिए। भक्ति के उदर से ज्ञान का जन्म होना चाहिए। भक्ति रूपी लता में ज्ञान के पुष्प खिलने चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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