बारहवां अध्याय
सगुण-निर्गुण-भक्ति
61. सगुण सुलभ और सुरक्षित
12. कोई यह कहेंगे कि "यहाँ 'ज्ञान' शब्द अर्थ संकुचित कर दिया है। यदि 'ज्ञान' से चित्त के मैल नहीं धुल सकते, तो ज्ञान का दर्जा हलका हो जाता है।" मैं इस आक्षेप को स्वीकार करता हूँ। परंतु मेरा कहना यह है कि शुद्ध ज्ञान इस मिट्टी के पुतले में रहते हुए होना कठिन है। इसमें रहते हुए जो ज्ञान होगा‚ वह कितना ही शुद्ध क्यों न हो‚ उसमें कुछ कमी रह ही जायेगी। इस देह में जो ज्ञान उत्पन्न होगा‚ उसकी शक्ति मर्यादित ही रहेगी। यदि शुद्ध ज्ञान का उदय हो जाये‚ तो उससे सारे मैल भस्म हो जायेंगे‚ इसमें मुझे तिल मात्र शंका नहीं है। चित्त सहित सारे मैलों को भस्म कर डालने का सामर्थ्य ज्ञान में है। परंतु इस विकारवान देह में ज्ञान का बल कम पड़ता है‚ इसलिए उसके द्वारा सूक्ष्म मैलों का मिटना संभव नहीं है। अतः भक्ति का आश्रय लिये बिना सूक्ष्म मैल मिटते नहीं। इसीलिए भक्ति में मनुष्य अधिक सुरक्षित है। यह ‘अधिक’ शब्द मेरी ओर से समझिए। सगुण भक्ति सुलभ है। इसमें परमेश्वरावलंबन है‚ निर्णुण में स्वावलंबन। इसमें ‘स्व’ का भी क्या अर्थ है? "अपने अंतःस्थ परमात्मा का आधार"- यही उस स्वावलंबन का अर्थ है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिल सकता‚ जो केवल बुद्धि के सहारे शुद्ध हो गया हो। स्वावलंबन से अर्थात अंतस्थ आत्मज्ञान से शुद्ध ज्ञान प्राप्त होगा। सारांश‚ निर्णुण भक्ति के स्वावलंबन में भी आत्मा का ही आधार है।
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