दसवां अध्याय
विभूति-चिंतन
50. परमेश्वर-दर्शन की सुबोध रीति
6. यह अपार सृष्टि मानो ईश्वर की पुस्तक है। आंखों पर गहरा पर्दा पड़ने से यह पुस्तक हमें बंद हुई-सी जान पड़ती है। इस सृष्टिरूपी पुस्तक में सुंदर अक्षरों में सर्वत्र परमेश्वर लिखा हुआ है। परंतु वह हमें दिखायी नहीं देता। ईश्वर का दर्शन होने में एक बड़ा विघ्न है। वह यह कि मामूली, सरल, नजदीक का ईश्वर-स्वरूप मनुष्य की समझ में नहीं आता और दूर का प्रखररूप उसे हजम नहीं होता। यदि किसी से कहें कि माता में ईश्वर को देखो, तो वह कहेगा- "क्या ईश्वर इतना सीधा और सरल है?" पर यदि प्रखर परमात्मा प्रकट हुआ, तो उसका तेज तुम सह सकोगे? कुंती की इच्छा हुई कि वह दूर वाला सूर्य मुझे प्रत्यक्ष आकर मिले; परंतु उसके निकट आते ही वह जलने लगी। उसका तेज उससे सहन नहीं हुआ। ईश्वर यदि अपने सारे सामर्थ्य के साथ सामने आकर खड़ा हो जाये, तो हमें पचता नहीं। यदि माता के सौम्यरूप में आकर खड़ा हो जाये, तो जंचता नहीं। पेड़ा-बर्फी पचती नहीं और मामूली दूध रुचता नहीं ये लक्षण हैं फूटी किस्मत के, मरण के, ऐसी यह रूग्ण मनःस्थिति परमेश्वर के दर्शन में बड़ा भारी विघ्न है। इस मनःस्थिति का त्याग करना चाहिए। पहले हम अपने पास के स्थूल और सरल परमात्मा को पढ़ लें और फिर सूक्ष्म और जटिल परमात्मा को पढ़ें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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