गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 103

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आठवां अध्याय
विभूति-चिंतन
50. परमेश्वर-दर्शन की सुबोध रीति


5. छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए जो उपाय हम करते है, वही उपाय परमात्मा का सर्वत्र दर्शन करने के लिए इस अध्याय में बताया गया है। बच्चों को वर्णमाला दो तरह से सिखायी जाती है। एक तरकीब है, पहले बड़े-बड़े अक्षर लिखकर बताने की। फिर उन्हीं अक्षरों को छोटा लिखकर बताया जाता है। वही ‘क’ और वही ‘ग’; परंतु पहले ये बड़े थे, अब छोटे हो गये। यह एक विधि हुई। दूसरी विधि है, पहले सीधे-सादे सरल अक्षर और बाद में जटिल संयुक्ताक्षर सिखाने की ठीक इसी तरह परमेश्वर को देखना सीखना चाहिए। पहले स्थूल स्पष्ट परमेश्वर को देखें। समुद्र, पर्वत आदि महान विभूतियों में प्रकटित परमेश्वर तुरंत आखों में समा जाता है। यह स्थूल परमात्मा समझ में आ जाये, तो एक जल-बिंदु में, मिट्टी के एक कण में, वही परमात्मा भरा हुआ है, यह भी आगे समझ में आ जायेगा। बड़े ‘क’ और छोटे ‘क’ में अंतर नहीं। जो स्थूल में वहीं सूक्ष्म में। यह एक पद्धति हुई।

दूसरी पद्धति है, सीधे-सादे सरल परमात्मा को पहले देखें, फिर उसके जटिल रूप को। जिस व्यक्ति में शुद्ध परमेश्वरीय आविर्भाव सहज रूप से प्रकट हुआ है, वह बहुत जल्दी ग्रहण कर लिया जा सकता है, जैसे राम में प्रकटित परमेश्वरीय आविर्भाव तुरंत मन पर अंकित हो जाता है। राम सरल अक्षर है। यह बिना झंझट का परमेश्वर है। परंतु रावण? यह संयुक्ताक्षर है। उसमें कुछ मिश्रण है। रावण की तपस्या, कर्म-शक्ति महान है। परंतु उसमें क्रूरता मिली हुई है। पहले रामरूपी सरल अक्षर को सीख लो। जिसमें दया है, वत्सलता है, प्रेमभाव है, ऐसा राम सरल परमेश्वर है, वह तुरंत पकड़ में आ जायेगा। रावण में रहने वाले परमेश्वर को समझने में जरा देर लगेगी। पहले सरल अक्षर, फिर संयुक्ताक्षर। सज्जनों में पहले परमात्मा को देखकर अंत में दुर्जनों में भी उसे देखने का अभ्यास करना चाहिए। समुद्रस्थित विशाल परमेश्वर ही पानी की उस बूंद में है। रामचंद्र अंदर का परमेश्वर ही रावण में है। जो स्थूल में है, वही सूक्ष्म में भी। जो सरल में है, वही कठिन में भी इन दो विधियों से हमें यह संसारूपी ग्रंथ पढ़ना सीखना है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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