|
दसवां
विभूति-चिंतन
49. गीता के पूर्वार्ध पर दृष्टि
3. इस सातत्य-योग का परिचय देकर नौवें अध्याय में बहुत मामूली, परंतु जीवन का सारा रंग ही बदल देने वाली एक बात भगवान ने बतायी है, और वह है ‘राज-योग’। नौंवां अध्याय कहता है कि जो कुछ भी कर्म हर घड़ी होते हैं, वे सब ईश्वरार्पण कर दो। इस एक ही बात में सारे शास्त्रसाधन, सब कर्म-विकर्म डूब गये। सब कर्म-साधना इस समर्पण-योग में विलीन हो गयी। समर्पण-योग हो ही ‘राज-योग’ कहते हैं। यहाँ सब साधन समाप्त हो गये। यह व्यापक और समर्थ ईश्वरार्पणरूपी साधन यों बहुत मामूली और आसान दीखता है, परंतु हो बैठा है अत्यंत कठिन। यह साधना सरल इसलिए है कि अपने ही घर में बैठकर गंवार देहाती से लेकर महाविद्वान तक सब बिना विशेष श्रम के इसे साध सकते हैं। हालांकि यह इतनी सरल है, फिर भी इसे साधने के लिए बड़े भारी पुण्य की जरूरत है।
बहुतां सुकृतांची जोड़ी। म्हणुनी विठ्ठलीं आवडी- ‘अनेक सुकृतों का योग हुआ है, इसलिए विठ्ठल में प्रेम उत्पन्न हुआ है।’ अनंत जन्मों का पुण्य संचित होता है, तभी ईश्वर में प्रीति उत्पन्न होती है। जरा कुछ हो, आंखों से आंसुओं की धारा लग जाती है। परंतु भगवान का नाम लेने पर आंखों में दो बूंद आंसू भी नहीं आते- इसका उपाय क्या? संतों के कथानुसार एक तरह से यह साधना बहुत ही सरल है। परंतु दूसरी तरह से वह कठिन भी है और आजकल तो और भी कठिन हो गयी है।
4. आज तो जड़वाद का पर्दा हमारी आंखों पर पड़ा हुआ है। आज तो श्रीगणेश यहीं से होता है कि ईश्वर कहीं है भी? वह कहीं भी किसी को प्रतीत ही नहीं होता। सारा जीवन विकारमय विषयलोलुप और विषमता से भरा है। इस समय तो ऊंचे-ऊंचे विचार करने वाले जो तत्त्वज्ञानी हैं,उनके भी विचार इस बात से आगे नहीं जा पा रहे कि सबको पेट भर रोटी कैसे मिलेगी! इसमें उनका दोष नहीं; क्योंकि आज हालत ऐसी है कि बहुतों को खाने को भी नहीं मिलता। आज की बड़ी समस्या है- रोटी। इस समस्या को हल करने में आज सारी बुद्धि उलझ रही है। सायणाचार्य ने रुद्र की व्याख्या की है- बुभुक्षमाणः रुद्ररूपेण अवतिष्ठते। ‘भूखे लोग ही रुद्र के अवतार है।’ उनकी क्षुधा-शांति के लिए अनेक तत्त्वज्ञान, अनेक वाद और राजनीति के अनेक प्रकार उठ खड़े हुए हैं। इन समस्याओं में से सिर ऊपर उठाने के लिए आज फुरसत ही नहीं। आज हमारे सारे भगीरथ-प्रयत्न इसी दिशा में हो रहे हैं कि परस्पर न लड़ते हुए सुख-शांति से और प्रसन्न मन से दो कौर रोटी कैसे खायें। ऐसी विचित्र समाज-रचना जिस युग में हो रही है, वहाँ ईश्वरार्पणता जैसी सीधी-सादी और सरल बात भी बहुत कठिन हो बैठे, तो क्या आश्चर्य! परंतु इसका उपाय क्या है? दसवें अध्याय में आज हम यही देखने वाले है कि ईश्वरार्पण-योग कैसे साधा जाये, कैसे सरल बनाया जाये।
|
|