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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
विहित कर्मईशावास्यमिदं सर्व यत्किंच जगत्यां जगत्। जगत् में जो कुछ भी है वह सब परमात्मा में स्थित है। इसका अनुभव करके हृदय में उठने वाली कामनाओं को-उदाहारणार्थ, दूसरे की उपभोग्य वस्तु प्राप्त करने के विचार को-त्याग दो। आनन्द की उपलब्धि कामना के त्याग से होती है। जीवन के नियत वर्ष व्यतीत करते हुए अपना कर्तव्य करते रहो। उपर्युक्त अलिप्तता और समर्पण से ही मनुष्य कर्म से अदूषित रह सकता है, अन्यथा नहीं। गीता में कर्म-त्याग के प्रयत्नों के बदले निःस्वार्थ भाव से कर्तव्य करने पर बार-बार जोर दिया गया है। अठारहवें अध्याय का प्रारम्भ निम्नलिखित श्लोकों से होता है। यद्यपि इस अध्याय को ‘सन्यास योग’ नाम दिया गया है, इसमें गीता की समस्त शिक्षा का उपसंहार हैः काम्यानांकर्मणां न्यासं सन्न्यासं कवयो विदु: । कामना से उत्पन्न हुए कर्मों के त्याग को ज्ञानी संन्यास के नाम से जानते हैं। समस्त कर्मों के फल के त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं। नियतस्य तु संन्यास: कर्मणे नोपपद्यते । नियत कर्म का त्याग उचित नहीं है। इस प्रकार का त्याग भ्रम से किया जाता है। वह तामसिक प्रकृति का लक्षण है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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