भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 75

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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जगत् की एकता

(अध्याय 5-श्लोक 16,18। अध्याय 6-श्लोक 29-31। अध्याय 8-श्लोक 9, 10, 12-14, 18-20, 22। अध्याय 18-श्लोक 20, 45-49)

मुमुक्षु अपने आचार का नियमन और मन का संयमन करके तथा अपने सब कर्मों को परमेश्वर की उपासना के रूप में उसे समर्पित करके यथासमय समस्त सृष्टि की एकता का साक्षात्कार कर सकता है। गीता की शिक्षा के अनुसार, समस्त जीवों के साथ अपना और परमेश्वर के साथ समस्त जीवों का अभेद स्थापित करना ही वह ज्ञान है, जिसकी, आत्मा को अज्ञानान्धार के आवरण से मुक्त करने के लिये साधना की जानी चाहिये। जो मनुष्य सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लेता है, उसकी विकसित दृष्टि से सुसंस्कृत और असंस्कृत, उच्च और नीच तथा एक योनि और दूसरी योनि का भी भेद मिट जाता है। ‘कुत्ते का मांस खाने वाला’ भी अन्यों के साथ एक हो जाता है।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन: ।
तेषामादित्यवज्ज्ञोनं प्रकाशयति तत्परम् ॥16॥[1]

जब आत्मज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश हो जाता है, तब सूर्य के समान प्रकाशमान ज्ञान परम सत्व का दर्शन कराता है।

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन: ॥18॥[2]

विद्वान और विनयवान ब्रह्मण में, गाय में हाथी में, कुत्ते में और कुत्ते को खाने वाले मनुष्य में ज्ञानी समदृष्टि रखते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 5-16
  2. दोहा नं0 5-18

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