विषय सूची
भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
विहित कर्मयदि मनुष्य एक बार व्यक्तिगत कामना से मुक्त हो गया, उसने समस्त सृष्टि की एकता का अनुभव कर लिया और, इसके परिणामस्वरूप, उसमें अलिप्तता, की समुचित दृष्टि विकसित हो गई, तो वह संन्यासी है-भले ही वह सब प्रकार के सामाजिक कर्मों में लगा रहता हो। योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय: । जो योग के मार्ग पर चलता है, जिसका हृदय शुद्ध हो गया है, जिसने अपने और अपनी इन्द्रियों के ऊपर विजय प्राप्त कर ली और जिसका भूतमात्र से एकात्म्य हो गया है, वह कर्म करता हुआ भी उससे अलिप्त रहता है। कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि । योगीजन आसक्ति रहित होकर शरीर से, मन से, बुद्धि से या केवल इन्द्रियों से भी आत्मशुद्धि के लिए कर्म करते हैं। भगवद्गीता की इस शिक्षा से हिन्दू धर्म-सिद्धान्तों में किसी विरोधात्मक और नये मत का प्रतिपादन नहीं होता। यह हिन्दू धर्म के प्रथम आचार्यों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का विशदीकरण-मात्र है। इस अध्याय में संकलित श्लोकों में जिन बातों पर जोर दिया गया है, वह सब ईशावास्योपनिषद् के निम्नलिखित श्लोकों में निहित हैः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज