भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 62

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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अनीश्वरवाद

(अध्याय 16-श्लोक 7-18, 23, 24)

यह सत्य होने पर भी कि उपासना का स्वरूप कोई भी हो, उससे ईश्वर की प्राप्ति होती है, गीता में अनीश्वरवाद और भौतिकवाद की स्पष्ट निन्दा की गई है। उसमें भौतिक जीवन पद्धति का वर्णन ऐसी भाषा में किया गया है कि वह आधुनिक जीवन से ही संबंध रखती जान पड़ती है।

भौतिकवादी स्वीकार नहीं करता कि कोई बात स्वयं सही या गलत होती है।

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुरा: ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥7॥[1]

असुर जन यह नहीं जानते कि अच्छे लक्ष्य सिद्ध करने के लिये क्या करना ठीक है, और न वे यही जानते हैं कि बुराई को टालने के लिये किस काम से बचना ठीक है। उनमें पवित्रता, सत्य और सदाचार भी नहीं पाया जाता।

जीवन की विचार धारा का वर्णन इस प्रकार किया गया है।

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् ।
अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ॥8॥[2]

वे कहते हैं- जगत का आधार सत्य नहीं है; वह किसी आध्यात्मिक नियम के आधार पर नहीं चलता; उस पर ईश्वर का शासन नहीं है; जीव कामनाजन्य आकर्षण द्वारा पंचभूतों के संयोग से उत्पन्न हुए हैं; इसके सिवा कुछ नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 16-7
  2. दोहा नं0 16-8

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