भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 2

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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विषय-प्रवेश

संस्कृत साहित्य में महान ग्रंथों को इस प्रकार की पीठ-भूमिका से प्रारम्भ करने की साधारण पद्धति है। महाभारत में भी यदि ऐसा न किया गया होता तो भगवद्गीता को हिंसा-प्रहार के दोष से मुक्त कराने के लिये महाभारत की सम्पूर्ण कथा का एक लम्बा रूपक तैयार करना पड़ता और यह काम बहुत कठिन हो जाता। सनातन धर्म के एक ग्रन्थ के रूप में गीता का अध्ययन करते समय हमें युद्ध-भूमि का दृश्य भुला देना चाहिए।

गीता में अठारह अध्याय और कुल सात सौ श्लोक हैं। आगे के पृष्ठों में 226 श्लोक उद्धत किये गये हैं। भगवद्गीता को साधारण रूप में समझ लेने के लिये इन श्लोकों का अध्ययन पर्याप्त होगा।

उपनिषदों में पहले से ही जो शिक्षा प्रस्तुत है, उससे अधिक भगवद्गीता में कुछ नहीं है। उसमें प्राचीन शिक्षा का संश्लेषण मात्र है। इस पुस्तक का उद्देश्य गीता का कोई नया भाष्य करना नहीं है। अतएव किसी पाठक को यह आशा नहीं करनी चाहिये कि आगे के पृष्ठों में पुरानी टीकाओं का खंडन अथवा नये भाष्य का आविष्कार दृष्टिगत होगा। इस छोटी-सी पुस्तिका का उद्देश्य केवल गीता के विषय को सरल रूप और छोटी-सी परिधि में प्रस्तुत करना है, ताकि दूसरे विषयों के अध्ययन में व्यस्त आधुनिक विद्यार्थी उसमें प्रतिपादित श्रद्धा, अनुशासन और आदर्शों को समझ सकें, जिनसे कि हमारे पूर्वजों का जीवन-पथ प्रकाशित हुआ और जिन्हें सनातन धर्म अथवा हिन्दू धर्म के नाम से पुकारा गया है।


प्रकृति के नियमों तथा विज्ञान के चमत्कारों का अल्प ज्ञान कुछ लोगों के स्वभावों पर मदिरा का-सा काम करता है। यह परिणाम उस समय विशेष रूप से होता है, जब कि ज्ञान की प्राप्ति अप्रत्यक्ष रूप से की जाती है और वह वैयक्तिक प्रयत्न तथा गवेषणा के संस्कारी प्रभाव से वंचित रहता है। ऐसी स्थिति में उन लोगों का अनुपात-ज्ञान भ्रष्ट हो जाता है। उनके लिए अज्ञात न केवल अज्ञात ही रहता है, वरन् सर्वथा नष्ट हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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