भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 54

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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आनुवंशिक संस्कार

(अध्याय 5-श्लोक 14,15। अध्याय 13-श्लोक 29, 30, 31। अध्याय 14-श्लोक-5,19। अध्याय 18-श्लोक 40,60,61)

दूसरों के विषय में विचार करने और उद्वेग के क्षणों में मन को शांत करने के लिये यह स्मरण करना उपयोगी होगा कि मनुष्य अनुचित आचरण क्यों करते हैं। हमारा जीवन सहज संस्कारों के भार के साथ प्रारम्भ होता है और जब कभी आत्मनिग्रह से काम लेने में असफल रहते हैं, वे संस्कार प्रकट होने लगते हैं। जब दूसरे गलती करते दिखलाई पडे़ं तो हमें अपनी दुर्बलताओं पर विचार करना चाहिए। इसके अतिरिक्त, प्रत्येक कार्य के पीछे ईश्वर होता है, जो सच्चा कर्ता है। हमारी मर्यादित बुद्धि को जो बुरा मालूम होता है उसके बार-बार दिखाई देने से हमें उद्विग्न नहीं होना चाहिए। परमेश्वर की इच्छा और उसके संकल्प यद्यपि प्राकृतिक नियमों के द्वारा कार्यान्वित होते हैं, फिर भी जाने नहीं जाते।

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु: ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥14॥[1]

आत्मा न किसी दूसरे से कर्म कराता है, न स्वयं करता है। वह कर्मफल की चिन्ता भी नहीं करता। भौतिक प्रकृति के गुण ही सब कुछ करते हैं।

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु: ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव: ॥15॥[2]

आत्मा का सच्चा स्वभाव यह है कि वह किसी के पाप अथवा पुण्य से प्रभावित नहीं होता। सच्चा ज्ञान अज्ञान से ढक जाता है, इसी से लोग मोह में फंसते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 5-14
  2. दोहा नं0 4-15

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