भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 58

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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सबके लिए आशा

(अध्याय 4-श्लोक 11। अध्याय 7-श्लोक 20-20। अध्याय 9-श्लोक 23, 26, 27, 29-32)

कर्म के सिद्धान्त से हमें भयभीत नहीं होना चाहिए। नियम अनुल्लंघनीय है, परन्तु ईश्वर प्रेम और नियम दोनों है। अपने पापों के बहुत बडे़ और बहुत अधिक होने के कारण किसी को हताश होने की आवश्यकता नहीं। प्रार्थना और प्रायश्चित से आत्मा शुद्ध हो जाती है। हिन्दू स्मृतियों और शास्त्रों में कुछ भी कहा गया हो, गीता के अनुसार तो ईश्वर की कृपा प्राप्त करने में स्त्री-पुरुष का भेद अथवा जाति-भेद भी आड़े नहीं आता।

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ॥11॥[1]

मनुष्य जिस प्रकार मेरा आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार मैं उन्हें फल देता हूँ, क्योंकि मनुष्य उपासना का कोई भी मार्ग ग्रहण करें, वे मुझे प्राप्त होते हैं।

यह विचार करने पर कि अब से कितने पहले इस सत्य को समझ कर मनुष्य के मार्गदर्शन के लिये इतने जोरदार शब्दों में प्रस्तुत कर दिया गया था, हिन्दू धर्म के आचार्यों की आध्यात्मिक महानता को समझ सकते हैं और उसकी सराहना कर सकते हैं।

कामैस्तैस्तैर्हतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता: ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया ॥20॥[2]

अनेक कामनाओं से जिनका ज्ञान हरा गया है, वे अपनी प्रकृति के अनुसार भिन्न-भिन्न बाह्य विधियों का आश्रय लेकर दूसरे देवताओं की शरण में जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 4-11
  2. दोहा नं0 7-20

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