भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 31

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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विहित कर्म

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
संगं त्यक्त्वा फलं चैव स त्याग: सात्त्विको मत: ॥9॥[1]

जो नियत कर्म इस भावना से किया जाता है कि उसे अलिप्तता के साथ और फल की कामना को त्यागकर करना चाहिये, उसमें निहित त्याग ही सात्विक माना गया है।

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषत: ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥11॥[2]

देहधारी देह का भार वहन करता हुआ कर्म का सर्वथा त्याग कभी नहीं कर सकता। जो कर्म फल का त्याग करने में सफल हो जाता है, उसका काम पूरा हो जाता है और वह त्यागी कहलाता है।

निम्नलिखित श्लोकों में यही विचार पुनः प्रतिपादित किया गया है। उनमें ईश्वरेच्छा के प्रति पूर्ण आत्म-समर्पण और दैवी विभूति के पूर्ण आश्रय पर भी जोर दिया गया है।

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रय: ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥56॥[3]

अपनी स्थिति से संबंध रखने वाले समस्त कर्मों को सदा करता हुआ भी जो मेरा आश्रय ग्रहण करता है, वह मेरी कृपा से शाश्वत, अव्यय पद प्राप्त करता है।

चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्यस्य मत्पर: ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्त: सततं भव ॥57॥[4]

मन से सब कर्मों को मुझे समर्पित करके, मुझे प्राप्त करने के लिये आतुर होकर, बुद्धिमान का अभ्यास कर और सदा अपने चित्त को मुझ से परिपूरित रख।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 18-9
  2. दोहा नं0 18-11
  3. दोहा नं0 18-56
  4. दोहा नं0 18-57

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