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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
त्रयोदश शतकम्
जो श्रीकृष्ण के गले से उतरा हुआ कृष्ण वर्ण का दिव्य गुंजाहार धारण कर रही हैं, जो नित्यकेलि के पिपासु श्रीकृष्ण के चित्त रूप को हरण करने वाली हैं, प्रेम पुंज मनोहर कुंजों में विहार करने वाली हैं, वह श्री राधिका अपने भक्ति के अभाव रूप ताप को हरने वाली मेरे हृदय में स्फुरित हों।।73।।
श्रीकृष्णचन्द्र के नयन चकोर जिसके मुख चन्द्र की चन्द्रिका का पान करते हैं, अनुराग की जो प्रकट मूर्त्ति हैं एवं अतिशय काम से उन्मत्त हैं, जिनकी सखियां भी दिव्य हेम वर्ग चम्पक कली के समान प्रति भात होती हैं जिससे भ्रमर समूह उनके पीछे उड़ता रहता है, इस प्रकार चित्र विचित्र कांति धारिणी श्री राधिका शोभित हो रही हैं। अतएव मेरे अन्तर की वेदना शांत हो।।74।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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