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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
प्रथमं शतकम्
चिरकाल पर्यन्त उपनिषत् के वाक्यों के तात्पर्य का विचार करने पर भी हाय! अणु मात्र भी जिस माधुरी की प्राप्ति नहीं हो सकती, परन्तु श्री वृन्दावन में वास करने से ही उसी माधुरी के समुद्र का आस्वादन मिलता है, ऐसा सर्वोत्कृष्ट श्रीधाम वृन्दावन मेरे चित्त में स्फुरित हो।।22।।
शत-शत पाद प्रहारों को एवं कोटि-कोटि धिक्कारों को भी सहन करता हुआ, धैर्यपूर्वक निरन्तर क्षुधा, तृष्णा तथा शीत ग्रीष्मादि के सैंकड़ों विघ्न-बाधाओं को अतिक्रम करके भी मैं कब शोकाश्रुधारा प्रवाहित करते-करते श्री राधिका-कृष्ण की नामावलि को अत्यन्त करुण ध्वनि से उच्च स्वर में गान-करता हुआ अति व्याकुल चित्त से अकिञ्चन होकर श्री वृन्दावन में इधर-उधर विचरण करूंगा? ।।23।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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