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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
एकादश शतकम्
अहो! मधुर से अति मधुर यह सुन्दरतम श्रीवृन्दावन मूर्त्ति मान श्रेय अर्थात मुक्ति एवं भक्ति के समान साधुजनों के निकट चिरकाल से प्रतिभात हो रहा है। किंतु हाय! असंतोषी होकर यहाँ वास करने से जो अपराध का अंकुर उदय हो जाता है, उससे वह अपराधी व्यक्ति श्रीराधा-कृष्ण के प्रणय रस के सार का अनुभव नहीं कर पाता है।।90।।
हे गोप सुन्दरी! तुम इन सुन्दर नेत्रों के लिये वृथा ही गर्वभार धारण कर रही हो, क्यों? इस श्रीवृन्दावन में जहाँ तहां सरोवरों में इस प्रकार के कितने कितने (असंख्य) नील कमल क्या प्रस्फुटित नहीं हो रहे हैं।।91।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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