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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
एकादश शतकम्
उनकी पीन कटि विपुल पुलिनों में, कोमल उरूदेश केला के वृक्षों में, एवं उनके कर-चरणों की अनिर्वचनीय शोभा रक्त कमलों में प्रकाशित हो रहीं है। हे श्रीवृन्दावन! तुम्हारे में मेरी प्रियतमा (श्रीराधा) पृथक्-पृथक् रूपों में निवास कर रही हैं और इसी धन्य क्रोड़ देश (गोद) में वह सम्पूर्ण भाव से उल्लास को प्राप्त हो रही हैं।।18।।
मेरी प्राणेश्वरी मेरे अति निकट होकर अत्यन्त कौतुक पूर्वक भाग जाती हैं। तब मैं अतीव व्याकुल हो जाता हूँ, तब वह (छिपकर) मुझे उस अवस्था में देखती रहती हैं, तब हे वृन्दावन! तुम्हारी लता संकेत के बहाने अपने किशलयरूप हाथ को हिलाकर उनके छिपाने के स्थान को मेरे लिये बता देती है, उसका मैं कितना ऋणी होता हूँ? अर्थात मैं तुम्हारा बहुत ऋणी होता हूँ।।19।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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