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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
एकादश शतकम्
हे वृन्दे! स्वप्न में अथवा जाग्रत में तुम्हारे वन से परे कहीं और स्थान पर जाने की मेरी इच्छा तक भी न हो, क्योंकि मैंने सुन रखा है कि श्रीराधा के प्रिय श्रीश्यामसुन्दर सदा तुम्हारे निकट ही विराजमान रहते हैं।।11।।
यह शरीर करात (आरी) द्वारा विदीर्ण हो जाय, अथवा इससे जाति एवं धर्मों का विलोप हो जाये, किन्तु सुदुर्लभ श्रीवृन्दावन को परित्याग करने की बात बिन्दुमात्र भी मेरी बुद्धि में न आवे।।12।।
श्रीराधिका के रति कुंजों से शोभित अति मनोहर वनका नेत्रों से पान (दर्शन) करते हुए मैं हरिभक्ति की भी कामना नहीं करता हूँ और मुक्ति तो मुझे सीपी के समान दीखती है।।13।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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