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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
एकादश शतकम्
परम चमत्कारी अत्यन्त निरंकुश अपनी सर्वशक्तियों को तुम्हारे भीतर बहुत दिनों से अर्पण करके श्रीराधा के साथ वे सुखपूर्वक विहार करते है, हे वृन्दावन! फिर तुम मेरे विषय में कैसे उदासीन हो?।।8।।
असीम महामहिमायुक्त परमरस प्रवाहकारी परम धाम! तुम्हारे भीतर यदि मैं रस प्राप्त न कर सका, तो हे वृन्दावन! तपस्या करके कोटि कोटि देह तुम्हारे में (श्रीवृन्दावन में) त्याग करूंगा।।9।।
कुत्तों एवं श्रृगालों का भक्ष्य यह मेरा शरीर यदि जीविका की चेष्टा से रहित होकर तुम्हारे भीतर मृत्यु को प्राप्त हो तो मेरा इसमें बहुत मंगल है, हे श्रीवृन्दावन! इस शरीर के पालन-पोषण के लिये तुम्हें छोड़कर मैं दूसरी ओर देखूंगा भी नहीं।।10।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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