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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पष्ठ शतकम्
जिनका मन मधुकर श्रीराधा-कृष्ण के चरण-कमलों के मकरन्द आस्वादन में उन्मत्त हो रहा है, युगल-प्रेम तीव्रप्रवाह जिनमें निरन्तर ही अश्रु-पुलकादि उत्पन्न होते हैं, एवं प्राणेश्वर युगलकिशोर के कभी आनन्द वश अथवा लुब्ध होने पर उनकी सेवा विघ्न आ जाने से जो अनुपात करती हैं- वे श्रीराधिका दासीगण मेरे हृदय में स्फुरित हों।।81।।
अपने प्राणेश्वर युगलकिशोर के कार्यवश इधर-उधर आने-जाने से जिनके कपोलों पर स्वर्णकुण्डल अति डोलायमान हो रहे हैं, कटि में कांची व नूपुरों की ध्वनि होती है, चूड़ा में अति मनोमद मधुर ध्वनि होती है, जिनकी अंग-कांति से दशों दिशाएं प्रकाशित होती हैं, इस प्रकार सुन्दर स्वर्ण लतावत् कृशांगी किशोरी श्रीराधा-दासीगण को स्मरण कर।।82।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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