वृन्दावन महिमामृत -श्यामदास पृ. 3

श्रीवृन्दावन महिमामृतम्‌ -श्यामदास

श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र

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धीरे-धीरे श्रीसरस्वती पाद के कानों में यह बात भी आ पहुँची कि उनके पूर्वाश्रम के भ्राता श्री वैंकटभट्ट तथा श्री त्रिमल्ल भट्ट, यहाँ तक कि उनका समस्त भट्ट-परिवार उसी श्री कृष्ण-चैतन्य-संन्यासी के पदाश्रित हो चुका है एवं श्री वैकुण्ठनाथ की उपासना छोड़ कर श्री कृष्ण के रंग में रंग गया है। विशेषतः उनका भ्रातुष्पुत्र - श्री गोपाल भट्ट, जो अतिशय प्रतिभाशाली था, जिसको वे अवश्य निर्विशेष ब्रह्मानुसन्धान-ज्ञानमार्ग में दीक्षित करना चाहते थे, उसने भी श्री कृष्ण चैतन्य के चरणों में आत्म समर्पण कर दिया है- यह बात जानकर ये अति दुःखित हुए और अपने को अपमानित मान कर सोचने लगे- “उस चैतन्य-संन्यासी में ऐसा कौन सा गुण है, मुझसे भी अधिक उसमें क्या तत्त्वज्ञता है, जो उसने मेरे परिवार पर भी अपीन मोहिनी डाल दी है?”

यह बात ठीक है कि श्री सरस्वतीपाद उस समय भारत वर्ष के अद्वितीय प्रकाण्ड विद्वान थे, त्याग-वैराग्य की पराकाष्ठा को प्राप्त कर मायावादी निखिल संन्यासियों के गुरु पद पर प्रतिष्ठित थे, किन्तु मान-अपमान, ईर्ष्या-मात्सर्य, राग-द्वेष आदि विकार क्या परम विद्वत्ता प्राप्त करने से या वैराग्य की पराकाष्ठा पर पहुँच कर समाप्त हो जाते हैं? क्या संन्यास लेकर मायावाद के कुचक्र में पड़कर- ‘अहं ब्रह्मास्मि’ मैं ब्रह्म हूँ, तू ब्रह्म है, सब कुद ब्रह्म है”- ऐसी रट लगाने से कोई व्यक्ति भगवान् की दैवी-गुणमयी माया शक्ति के बन्धन से छुटकारा पा सकता है?- कभी नहीं। प्रेम भक्ति पूर्वक सच्चिदानन्दघन-विग्रह परात् पर-ब्रह्म सर्व शक्ति-सम्पन्न शरणागत-प्रतिपाल श्री ब्रजेन्द्र नन्दन के चरणार विन्द की शरणागति के बिना- भक्ति साधनानुष्ठान के बिना कभी भी जीव माया के इन द्वन्द्वों से मुक्त नहीं हो सकता।

अब तो श्री सरस्वती पाद और भी खीज उठे और मायावाद के स्थापूर्वक भक्ति-अनुष्ठानों की निन्दा करने लगे। वे कहा करते- “भक्ति तो भावुकों या स्त्रियों का धर्म है। पुरुष होकर रोना, नाचना-गाना। इससे तो मर जाना अच्छा है। अज्ञानी और दुर्बल चित्त लोगों ने एक भगवान् की कल्पना कर रखी है। जीव तो स्वयं ब्रह्म है। सर्व जगत् ब्रह्म है- परिदृश्यमान जगत् सब मिथ्या है, इसका कुछ अस्तित्व ही नहीं है। जीव ब्रह्मैक्य ज्ञान ही जीव का साध्य है”- इत्यादि।

दूसरी ओर श्रीमन्महाप्रभु एवं उनके पराश्रित पार्षदों के द्वारा चारों ओर प्रेम भक्ति की एक प्रचण्ड-वेग-वन्या उमड़ रही थी, जो पात्र-अपात्र, दुर्जन-सज्जन, स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध, ब्राह्मण-चाण्डाल, पशु-पक्षी, स्थावर-जंगम-समस्त जगत् को प्लावित करती हुई बढ़ी आ रही थी। किन्तु एक काशी नगरी बच रही थी, जहाँ मायावाद का बोलबाला था एवं भक्ति विरोधी तत्त्वों का केन्द्र बनी हुई थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीवृन्दावन महिमामृतम्‌ -श्यामदास
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. परिव्राजकाचार्य श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र 1
2. व्रजविभूति श्री श्यामदास 33
3. परिचय 34
4. प्रथमं शतकम्‌ 46
5. द्वितीय शतकम्‌ 90
6. तृतीयं शतकम्‌ 135
7. चतुर्थं शतकम्‌ 185
8. पंचमं शतकम्‌ 235
9. पष्ठ शतकम्‌ 280
10. सप्तमं शतकम्‌ 328
11. अष्टमं शतकम्‌ 368
12. नवमं शतकम्‌ 406
13. दशमं शतकम्‌ 451
14. एकादश शतकम्‌ 500
15. द्वादश शतकम्‌ 552
16. त्रयोदश शतकम्‌ 598
17. चतुर्दश शतकम्‌ 646
18. पञ्चदश शतकम्‌ 694
19. षोड़श शतकम्‌ 745
20. सप्तदश शतकम्‌ 791
21. अंतिम पृष्ठ 907

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