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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र
उन दिनों में जो व्यक्ति संन्यास ग्रहण करते थे, वे प्रायः श्रीमत् शंकराचार्य पाद के ही मतावलम्बी हुआ करते थे एवं मायावाद-मूलक वेदान्त भाष्य ही उनका नित्य-पाठ होता था। कोई व्यक्ति संन्यास लेकर वैष्णव-धर्मानुष्ठान भी कर सकता है-भक्ति-पथ का पथिक भी हो सकता है- ऐसी धारणा उस समय नहीं थी। श्री प्रकाशानन्द सरस्वती पाद भी मायावाद या अद्वैत वाद के प्रधान आचार्य थे और दस हजार शिष्यों के साथ काशी में मायावाद-मूलक वेदान्त भाष्य का प्रचार-प्रसार करते हुए निवास करते थे। इधर कलियुग पावनावतार-श्री मन्महाप्रभु श्री कृष्ण चैतन्य देव मायावाद, कर्मनिष्ठ कुतार्किक, पाषण्डी व्यक्तियों को भक्ति विहीन देखकर, विशेषतः उनके द्वारा किए हुए कृष्ण निन्दा-अपराध को अपरिशोध्य जानकर चिन्तित हो उठे। उन्होंने तात्कालिक धारणा के अनुसार सांसारिक सुख-सम्पत्ति, जननी, नव-विवाहिता किशोरी धर्म-पत्नी-समस्त का परित्याग कर दिया और कपट-संन्यास ग्रहण कर लिया। विशेषतः इसलिए कि मायावादी कुतार्किक आदि समस्त भक्ति-विरोधी-तत्त्व अपनी धारणानुसार संन्यास-आश्रस से प्रभावित होकर उनकी नति-प्रणति पूर्वक कृष्ण-निन्दा के अपराध से विरत हो सकेंगे। इस प्रकार वे स्वयं भक्ति-रस का आस्वादन करते हुए, आनुषंगिक भाव से जगत्-जीवों को प्रेम-वन्या में सराबोर करते हुए नीलाचल पधार चुके थे। नीलाचल में राजा प्रतातरुद्र की प्रेरणा से श्री वासुदेव सार्वभौम भट्टाचार्य निवास करते थे, जो श्री प्रकाशानन्द सरस्वती के समान अद्वितीय विद्वान, सर्व शास्त्र-निष्णात एवं सर्व प्रधान नैयायिक थे। भारत के समस्त देशों से अनेक वेदान्तिक दण्डी संन्यासी उनके पास आकर वेदान्त भाष्य का अध्ययन किया करते थे। उन्होंने जब सर्वप्रथम श्री मन्महाप्रभु के प्रेम-जनित अलौकिक सात्त्विक-भावों को देखा, उनके आजानुलम्बित, त्रिभुवन-मनोहर सुन्दर गौरवर्ण प्रकाण्ड ज्योतिर्मय श्री विग्रह के दर्शन किए तो वे चमत्कृत हो उठे। तदनन्तर जब श्री मन्महाप्रभु के श्री मुख से श्री शंकराचार्य पाद-कृत-मायावाद मूलक वेदान्त भाष्य का खण्डन एवं भाष्य के प्रकृत अर्थों और व्याख्या का श्रवण किया, तब उनका विद्याभिमान चूर्ण-चूर्ण हो गया। श्री मन्महाप्रभु के असमोर्ध्व ऐश्वर्य-माधुर्य-पूर्ण षड्भुज-स्वरूप के दर्शन कर श्री सार्वभौम ने प्रभु के चरणों में आत्म-समर्पण कर दिया एवं परम कृतार्थ हो गए। श्री वासुदेव सार्वभौम, एक संन्यासी- श्री कृष्ण चैतन्य के पदाश्रित हो गया है, उसके साथ प्रेमोन्मत्त होकर नाचता-गाता है, उसे स्वयं-भगवान् श्री कृष्ण मानने लगा है- यह बात काशी में श्री सरस्वतीपाद ने जब सुनी तो वे अत्यन्त चकित हो उठे और सोचने लगे- “यह कैसा संन्यास? नाचता-गाता है। अवश्य कोई इन्द्रजाली प्रतीत होता है, जिसने सार्वभौम को भी मूर्ख बना डाला है।” श्री सार्वभौम के प्रति श्री सरस्वतीपाद की घृणा उत्पन्न हो गई, चाहे पहले दोनों एक दूसरे से अच्छी तरह परिचित थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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