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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पंचमं शतकम्
मुझे अत्यन्त पीड़ा देने वाले कारागार मे बार-बार बाँध करके ये अत्यन्त दुर्दान्त इन्द्रिय-वैरीगण निरन्तर पीड़ा देते हैं, हे हरे! मेरी रक्षा करो।।66।।
कामदेव के विषैले वाणों से निरन्तर मैं जल रहा हूँ हाय! हाय!! वृन्दावन वास करके भी मुझे शांति न मिली!!! अब मैं क्या करूँ।।67।।
तरुणी-शरीररूप विष्टा का पात्र विद्वान् गुणों के हृदय को भी उन्मत कर देता हैं, अतएवं उसके देखने एवं उसकी बात सुनने से रहित होकर श्रीवृन्दावन का ध्यान कर ।।68।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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