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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पंचमं शतकम्
नव तरुणी की कामाग्नि सर्वाग को जलाए जाती है, दुष्टिपात से ही मोह उत्पन्न कर देती है, फिर और स्वार्थ सिद्धि की आशा कहाँ रही?।।69।।
अहो! काम-क्रोध से तो मैं अति अन्ध हो रहा हो रहा हूँ, लोभ के वशीभूत हूँ- श्रीराधा केलिवन में वास करता हूँ, और परम श्रेष्ठ की इच्छा करता हूँ! मुझे लज्जा भी नहीं आती?।।70।।
मैं कामादि द्वारा गाढ़ता से मोहित हो रहा हूँ, किंतु वेदगूढ़ सद्भाव के पाने का इच्छक हुँ, अतः श्रीवृन्दावन मे वास करते हुए एकमात्र असी की करुणा की शरण ग्रहण करता हूँ।।71। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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