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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
कोई यदि मुझे ‘‘यह चोर है’’, ‘‘पतित है’’ इत्यादि वाक्यों से कठोर भर्त्सना करे, तर्ज्जना गर्ज्जनपूर्वक अच्छी तरह ताड़ना करे, बाँध दे, सब लोग निरपराधी मुझको सर्वत्र उद्विग्न करें अथवा यदि मुझको अतीव असह्य मनःपीड़ा ही प्राप्त हो, किंवा अनेक प्रकार के दुखों के द्वारा उत्पीड़ित कभी होऊँ, फिर भी मेरी यह शरीर तो इसी श्रीवृन्दावन में ही पात हो- यही मेरी प्रार्थना है।।34।।
श्रीवृन्दावनाधीश्वरी प्रेमानन्दमय महारस-सागर के सुघनीभूत श्रीवृन्दावनचन्द्र की मुख्य अमला-रति निरन्तर दान करती हैं- श्रीवृन्दावन भी तद्रसात्मक हो रहा है, और सौन्दर्यमयी सखीमण्डली भी तादात्म्यभाव में अद्भुत स्नेहावेश के कारण सदा सर्वदा अश्रुपुलकादियुक्त होकर विराज रही है।।35।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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