विषय सूची
श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
उनके सर्वांगों में बार बार पुलकावली होती है, नित्य उन्मादकारी श्यामसुन्दर के अति उन्नत अभंग (कुटिल, नित्य स्थायी) रतिप्रसंग में ही आनन्दित होकर वह प्रति अंग में कामालनस्य सौन्दर्य धारण कर रहीं हैं, माधुर्यधारा वर्षणकारी अनिर्वचनीय किसी किसी महाव्याकुलतापूर्ण वाक्य के द्वारा वेशरचना कार्य में भी सखियों को असमय पर व्याकुल कर देती हैं- ।।15।।
श्रीश्यामसुन्दर के अंग (अंक) में वह आलस्युक्त अंग अर्पण कर ताम्बूल प्रदान, व्यजनादि सेवा तथा प्रेमसहित धीरे-धीरे पाद सम्वाहनादि के द्वारा दासीगणों से सम्यक् प्रकार सेवित हो रही हैं, प्राणेश्वर (श्रीश्यामसुन्दर) के मखचन्द्र का मधु तथा चर्वित ताम्बूल बार बार स्वयं ग्रहण करती हैं, एवं मृदु मधुर हास्यपूर्वक अपने मुखचन्द्र का मधु तथा संचर्वित ताम्बूल उनको पुनः पुनः देती हैं- ।।16।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज