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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र
श्री वृन्दावनीय स्थावर-जंगमात्मक जितनी वस्तुएँ हैं उनके प्रति सम्मान-ज्ञापन, चिदानन्द-वृन्दावन के स्वरूप का साक्षात्कार, व्रज जन-सेवा, व्रज-वासनिष्ठा, वासफल, गुरुतत्त्व, आत्म-तत्त्व, राधा कृष्ण-तत्त्व तथा गोपी-मत्र्जरी-तत्त्व आदि की ही सर्वत्र इस रचना में आलोचना की गई है। वह अति प्रगाढ़ है, भावैकगम्य है, श्री गौरांगकृपालभ्य एवं अनुरागैक-संवेद्य है। यही कारण है कि इस रचना ने सार्वजनीन ग्रन्थ का स्थान प्राप्त कर लिया है। समस्त सम्प्रदाय इससे अपनी उपासना-शैली, व्रजवास निष्ठा को दृढ़ करते हैं। अतः सम्प्रदाय-सीमातीत है यह अपूर्व रचना। इस रचना में श्री विश्वनाथ चक्रवर्ति पाद के श्रीकृष्ण भावनामृत तथा श्रीमद् रूप गोस्वामिपाद के श्री निकुंज रहस्य स्तव की तरह सम्प्रयोग-सम्भोग वर्णना में ही श्री सरस्वती पाद का जितना अधिक आवेश दिखाई देता है, उतना लीला-विलास में नहीं। इसी प्रकार उनका हृदवत् लीला में ही अधिक झुकाव है। रागानुगा-मार्ग भजनानुकूल रुचि जिन साधकों में अभी उदित नहीं हो पाई, उन साधकों को वैधी सम्वलित भाव से भजन करने का निर्देश श्री जीव गोस्वामिपाद ने किया है। किन्तु जिनमें रागानुगीय-भजन की रुचि उत्पन्न हो चुकी है, वे कैसा, क्या भजन करें, उसका उन्नत-उज्ज्वल आदर्श ज्वलन्त अक्षरों में प्रदर्शित किया है श्री सरस्वती पाद ने इस रचना में। 3. श्रीराधारससुधानिधि - यह एक स्तोत्र काव्य है। श्री वृन्दावन के दिव्यातिदिव्य सौन्दर्य-माधुर्यमय स्वरूप के स्फुरित होते ही श्री सरस्वती पाद का जो प्रकृत स्वरूप है, वह उच्छलित हो उठा अर्थात व्रज-लीला में ये श्री तुंगा विद्या हैं। उस स्वरूप की स्फूर्त्ति में ये अपने प्राणधन श्री श्रीराधा कृष्ण की उपासना तल्लीन हो गए। वस्तुतः श्री गौरांगदेव की कृपा से नाम-माधुरी, प्रेम माधुरी तथा वृन्दावन रस-माधुरी में प्रवेशाधिकार प्राप्त हो सकता है। उस अधिकार को तो ये पहले ही प्राप्त कर चुके थे। अतः इनमें परम रस चमत्कार-माधुर्य-सीमा राधातत्त्व की भी स्फूर्ति जाग उठी। जिसके फलस्वरूप इन्होंने राधा तत्त्व को लावण्य सार, कृष्णसुखैक सार, कारुण्य सार, माधुर्य सार, वैदग्धि सार, रतिकेलिविलाससार तथा अखिल सारातसार अनुभव कर श्री राधाजी की लीलाखेलन-चातुरी, वचन-चातुरी, कुंज-अभिसार-चातुरी तथा नवनवायमान क्रीड़ा-कला-चातुरी आदि का अद्भुत वर्णन इस रचना में किया। श्री रूप गोस्वामि विरचित श्रीउज्ज्वल नीलमणि वर्णित लक्षणों के अनुसार श्री राधाजी कभी अभिसारिका हैं,[1] कभी प्रेम वैचित्यापन्ना हैं[2] कभी उत्कण्ठिता[3] और कभी खण्डिता[4] हैं - इन सब रुपों का निरूपण मिलता है इस रचना में। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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