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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
तृतीय शतकम्
अहो! श्रीवृन्दावन में मोर अपनी केका-ध्वनि से दशों दिशाओं को मुखरित कर नृत्य करते हैं, कोकिलाएँ आम्रवृक्षों पर बार-बार कुहु कुहु शब्द कर रही हैं, भँवरे इधरा-उधर प्रति पुष्पलता पर मधुर गान कर रहे हैं, विचित्र दिव्य फुलों की सुगन्ध चारों दिशाओं को सुवासित कर रही है।।43।।
जहाँ से मुक्ति सन्मार्जनी (बुहारी) की चोट खाकर दूर से अति दूर जा पड़ती है, जिसकी सेवा करने के लिए श्रेष्ट अष्टसिद्धियाँ विनय-प्रार्थना करने में भी भयभीत होती है, अहो! जिसका नाम सुनते ही माया दूर जा पड़ती है एवं नाश हो जाती है, उस अति अचिन्त्य माहिमायुक्त श्रीवृन्दावन का देहपात-पर्यन्त आश्रय कर।।44।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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