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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
पंचदश अध्याय
निर्मानमोहा जितसंगदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसन्ज्ञै-
र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।5।।
उपर्युक्त प्रकार के समर्पण से जिनका मोह और मान नष्ट हो गया है, आसक्तिरूपी संगदोष जिन्होंने जीत लिया है, ‘अध्यात्मनित्या’- परमतात्मा के स्वरूप में जिनकी निरन्तर स्थिति है, जिनकी कामनाएँ विशेष रूप से निवृत्त हो गयी हैं और सुख-दुःख के द्वन्द्वों से विमुक्त हुए ज्ञानीजन उस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते हैं। जब तक यह अवस्था नहीं आती, तब तक संसारवृक्ष नहीं कटता। यहाँ तक वैराग्य की आवश्यकता रहती है। उस परमपद का क्या स्वरूप है, जिसे पाते हैं?-
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