विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्दश अध्यायनान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति। जिस काल में द्रष्टा आत्मा तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणों से अत्यन्त परे परमतत्त्व को ‘वेत्ति’-विदित कर लेता है, उस समय वह पुरुष मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। यह बौद्धिक मान्यता नहीं है कि गुण गुण में बरतते हैं। साधन करते-करते एक ऐसी अवस्था आती है, जहाँ उस परम से अनुभूति होती है कि गुणों के सिवाय कोई कर्ता नहीं दिखता, उस समय पुरुष तीनों गुणों से अतीत हो जाता है। यह कल्पित मान्यता नहीं है। इसी पर आगे कहते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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