यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 618

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

त्रयोदश अध्याय

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते।।23।।

इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य साक्षात्कार के साथ विदित कर लेता है, वह सब प्रकार से बरतता हुआ भी फिर नहीं जन्मता अर्थात् उसका पुनर्जन्म नहीं होता। यही मुक्ति है। अभी तक योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ब्रह्म और प्रकृति की प्रत्यक्ष जानकारी के साथ मिलनेवाली परमगति अर्थात् उसका पुनर्जन्म से निवृत्ति पर प्रकाश डाला और अब वे उस योग पर बल देते हैं जिसकी प्रक्रिया है आराधना; क्योंकि इस कर्म को कार्यरूप दिये बिना कोई पाता नहीं।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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