विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वादश अध्यायश्रीभगवानुवाच अर्जुन! मुझमें मन को एकाग्र करके निरन्तर मुझसे संयुक्त हुए जो भक्तजन परम से सम्बन्ध रखनेवाली श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझे भजते हैं, वे मुझे योगियों में भी अति उत्तम योगी मान्य हैं। ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार संयत करके मन-बुद्धि के चिन्तन से अत्यन्त परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप, सदा एकरस रहनेवाले, नित्य, अचल, अव्यक्त, आकाररहित और अविनाशी ब्रह्म की उपासना करते हैं, सम्पूर्ण भूतों के हित में लगे हुए और सबमें समान भाववाले वे योगी भी मुझे ही प्राप्त होते हैं। ब्रह्म के उपर्युक्त विशेषण मुझसे भिन्न नहीं हैं। किन्तु- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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