यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 580

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वादश अध्याय

श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।2।।

अर्जुन! मुझमें मन को एकाग्र करके निरन्तर मुझसे संयुक्त हुए जो भक्तजन परम से सम्बन्ध रखनेवाली श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझे भजते हैं, वे मुझे योगियों में भी अति उत्तम योगी मान्य हैं।

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्।।3।।
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।4।।

जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार संयत करके मन-बुद्धि के चिन्तन से अत्यन्त परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप, सदा एकरस रहनेवाले, नित्य, अचल, अव्यक्त, आकाररहित और अविनाशी ब्रह्म की उपासना करते हैं, सम्पूर्ण भूतों के हित में लगे हुए और सबमें समान भाववाले वे योगी भी मुझे ही प्राप्त होते हैं। ब्रह्म के उपर्युक्त विशेषण मुझसे भिन्न नहीं हैं। किन्तु-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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