यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 564

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

एकादश अध्याय

श्रीभगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।।52।।

महात्मा श्रीकृष्ण ने कहा-अर्जुन! मेरा यह रूप देखने को अतिदुर्लभ है, जैसा कि तूने देखा है; क्योंकि देवता भी सदा इस रूप के दर्शन की इच्छा रखते हैं। वस्तुतः सभी लोग सन्त को पहचान ही नहीं पाते। ‘पूज्य सत्संगी महाराज’ अन्तःप्रेरणावाले पूर्ण महापुरुष थे; लेकिन लोग उन्हें पागल समझते रहे। किसी-किसी पुण्यात्मा को आकाशवाणी हुई कि ये सद्गुरु हैं; केवल उन्होंने उन्हें हृदय से पकड़ा, उनके स्वरूप को पाया और अपनी गति पा ली। यही श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिनके हृदय में दैवी सम्पद् जागृत है, वे देवता भी सदा इस रूप के दर्शन की आकांक्षा रखते हैं। तो क्या यज्ञ, दान अथवा वेदाध्ययन से आप देखे जा सकते हैं? वह महात्मा कहते हैं-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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