यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 471

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

नवम अध्याय


दुनिया में सब प्राणी मेरे ही हैं। किसी भी प्राणी से न मुझे प्रेम है न द्वेष, मै तटस्थ हूँ, किन्तु जो मेरा अनन्य भक्त है, मैं उसमें हूँ और वह मुझमें है। अत्यन्त दुराचारी, जघन्यतम पापी ही कोई क्यों न हो, फिर अनन्य श्रद्धाभक्ति से मुझे भजता है तो वह साधु मानने योग्य है। उसका निश्चय स्थिर है तो वह शीघ्र ही परम से संयुक्त हो जाता है और सदा रहनेवाली परमशान्ति को प्राप्त होता है। यहाँ श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया कि धार्मिक कौन है। सृष्टि में जन्म लेनेवाला कोई भी प्राणी अनन्य भाव से एक परमात्मा को भजता है, उसका चिन्तन करता है तो वह शीघ्र ही धार्मिक हो जाता है। अतः धार्मिक वह है, जो एक परमात्मा का सुमिरन करता है। अन्त में आश्वासन देते हैं-‘अर्जुन! मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता। कोई शूद्र हो, नीच हो, आदिवासी हो या अनादिवासी या कुछ भ्ज्ञी नामधारी हो, पुरुष अथवा स्त्री हो अथवा पापयोनि, तिर्यक् योनिवाला भी जो हो, मेरी शरण होकर परमश्रेय को प्राप्त होता है। इसलिये अर्जुन! सुखरहित, क्षणभंगुर किन्तु दुर्लभ मनुष्य-शरीर को पाकर मेरा भजन कर। फिर तो जो ब्रह्म में प्रवेश दिलानेवाली अर्हताओं से युक्त है, उस ब्राह्ममण तथा जो राजर्षित्व के स्तर से भजनेवाला है, ऐसे योगी के लिये कहना ही क्या है? वह तो पार ही है। अतः अर्जुन! निरन्तर मुझमें मनवाला हो, निरन्तर नमस्कार कर। इस प्रकार मेरी शरण हुआ तू मुझे ही प्राप्त होगा, जहाँ से पीछे लौटकर नहीं आना पड़ता।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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