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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
नवम अध्याय
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं - ‘अर्जुन! मूढ़लोग मुझे नहीं जानते। मुझ ईश्वरों के ईश्वर को भी तुच्छ समझते हैं, साधारण मनुष्य मानते हैं। प्रत्येक महापुरुष के साथ यह विडम्बना रही है कि तत्कालीन समाज ने उनकी उपेक्षा की, उनका डटकर विरोध हुआ। श्रीकृष्ण भी इसके अपवाद नहीं थे। वे कहते हैं- मैं परमभाव में स्थित हूँ; किन्तु शरीर मेरा भी मनुष्य का ही है, अतः मूढ़ पुरुष मुझे तुच्छ कहकर, मनुष्य कहकर सम्बोधित करते हैं। ऐसे लोग व्यर्थ आशावाले हैं, व्यर्थ कर्मवाले हैं, व्यर्थ ज्ञानवाले हैं कि कुछ भी करें और कह दें कि हम तो कामना नहीं करते, हो गये निष्काम कर्मयोगी। वे आसुरी स्वभाववाले मुझे नहीं परख पाते; किन्तु दैवी सम्पद् को प्राप्त जन अनन्य भाव से मेरा ध्यान करते हैं, मेरे गुणों का निरन्तर चिन्तन करते हैं।
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