यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दनवम अध्याय
अहं क्रतरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्। कर्ता मैं हूँ। वस्तुतः कर्ता के पीछे प्रेरक के रूप में सदैव संचालित करनेवाला इष्ट ही है। कर्ता द्वारा जो पार लगता है, मेरी देन है। यज्ञ मैं हूँ। यज्ञ आराधना की विधि-विशेष है। पूर्तिकाल में यज्ञ जिसका सृजन करता है, उस अमृत को पान करनेवाला पुरुष सनातन ब्रह्म में प्रवेश पा जाता है। स्वधा मैं हूँ अर्थात् अतीत के अनन्त संस्कारों को विलय करना, उन्हें तृप्त कर देना मेरी देन है। भवरोग को मिटानेवाली औषधि मैं हूँ। मुझे पाकर लोग इस रोग से निवृत्त हो जाते हैं। मन्त्र मैं हूँ। मन को श्वास के अन्तराल में निरोध करना मेरी देन है। इस निरोध-क्रिया में तीव्रता लानेवाली वस्तु ‘आज्य’ (हवि) भी मैं हूँ। मेरे ही प्रकाश में मन की सभी प्रवृत्तियाँ विलीन होती हैं। हवन अर्थात् समर्पण भी मैं ही हूँ। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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