यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दनवम अध्याय
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते। उनमें से कोई तो मुझ सर्वव्याप्त विराट् परमात्मा को ज्ञानयज्ञ द्वारा यजन करते हैं। अर्थात् अपनी हानि, लाभ और शक्ति को समझकर इसी नियत कर्म यज्ञ में प्रवृत्त होते हैं, कुछ एकत्व भाव से मेरी उपासना करते हैं कि मुझे इसी में एक होना ह और दूसरे सब कुछ मुझे अलग रखकर, मुझे समर्पण करके निष्काम सेवा-भाव से मुझे उपासते हैं तथा बहुत प्रकार से उपासते हैं; क्योंकि एक ही यज्ञ के ये सभी ऊँचे-नीचे स्तर हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज