विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दअष्टम अध्यायवेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव इसको साक्षात्कारसहित जानकर (मानकर नहीं) योगी वेद, यज्ञ, तप और दान के पुण्यफलों का निःसन्देह अतिक्रमण कर जाता है और सनातन परमपद को प्राप्त होता है। अविदित परमात्मा की साक्षात् जानकारी का नाम वेद है। वह अविदित तत्त्व जब विदित हो गया तो अब कौन किसे जाने? अतः विदित होने के पश्चात् वेदों से भी प्रयोजन समाप्त हो जाता है; क्योंकि जाननेवाला भिन्न नहीं है। यज्ञ अर्थात् आराधना की नियत क्रिया आवश्यक थी, किन्तु जब वह तत्त्व विदित हो गया, तो किसके लिये भजन करें? मनसहित इन्द्रियों को लक्ष्य अनुरूप तपाना तप है। लक्ष्य प्राप्त होने पर किसके लिये तप करे? मन, वचन और कर्म से सर्वतोभावेन समर्पण का नाम दान है। इन सबका पुण्यफल है परमात्मा की प्राप्ति। फल भी अब विलग नहीं है अतः इन सबकी अब आवश्यकता ही न रही। वह योगी यज्ञ, तप, दान इत्यादि के फल को भी पार कर जाता है। वह परमपद को प्राप्त होता है।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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