यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 415

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

अष्टम अध्याय

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव
दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा
योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।28।।

इसको साक्षात्कारसहित जानकर (मानकर नहीं) योगी वेद, यज्ञ, तप और दान के पुण्यफलों का निःसन्देह अतिक्रमण कर जाता है और सनातन परमपद को प्राप्त होता है। अविदित परमात्मा की साक्षात् जानकारी का नाम वेद है। वह अविदित तत्त्व जब विदित हो गया तो अब कौन किसे जाने? अतः विदित होने के पश्चात् वेदों से भी प्रयोजन समाप्त हो जाता है; क्योंकि जाननेवाला भिन्न नहीं है। यज्ञ अर्थात् आराधना की नियत क्रिया आवश्यक थी, किन्तु जब वह तत्त्व विदित हो गया, तो किसके लिये भजन करें? मनसहित इन्द्रियों को लक्ष्य अनुरूप तपाना तप है। लक्ष्य प्राप्त होने पर किसके लिये तप करे? मन, वचन और कर्म से सर्वतोभावेन समर्पण का नाम दान है। इन सबका पुण्यफल है परमात्मा की प्राप्ति। फल भी अब विलग नहीं है अतः इन सबकी अब आवश्यकता ही न रही। वह योगी यज्ञ, तप, दान इत्यादि के फल को भी पार कर जाता है। वह परमपद को प्राप्त होता है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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