यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 407

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

अष्टम अध्याय

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे।।19।।


हे पार्थ! सब प्राणी इस प्रकार जागृत होकर प्रकृति से विवश होकर अविद्यारूपी रात्रि के आने पर अचेत हो जाते हैं। वे नहीं देख पाते कि उनका लक्ष्य क्या है? दिन के प्रवेशकाल में वे पुनः जागृत हो जाते हैं। जब तक बुद्धि है, तब तक इसके अन्तराल में विद्या और अविद्या का क्रम चलता रहता है। तब तक वह साधक ही है, महापुरुष नहीं।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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