विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दसप्तम अध्यायसांसारिक ‘अर्थ’ की पूर्ति करते-करते भगवान वास्तविक अर्थ आत्मिक सम्पत्ति की ओर बढ़ा देते हैं; क्योंकि वे जानते हैं कि इतने ही से मेरा भक्त सुखी नहीं होगा इसलिये वे आत्मिक सम्पत्ति भी उसे देने लगते हैं। ‘लोक लाहु परलोक निबाहू।’ (रामचरितमानस, 1/11/2) लोक में लाभ और परलोक में निर्वाह ये दोनों भगवान की वस्तुएँ हैं। अपने भक्त को खाली नहीं छोड़ते। ‘आर्तः’-जो दुःखी हो, ‘जिज्ञासुः’-समग्रता से जानने की इच्छा वाले जिज्ञासु मुझे भेजते हैं। साधना की परिपक्व अवस्था में दिग्दर्शन (प्रत्यक्ष दर्शन) की अवस्थावाले ज्ञानी भी मुझे भजते हैं। इस प्रकार चार प्रकार के भक्त मुझे भजते हैं, जिनमें ज्ञानी श्रेष्ठ है अर्थात् ज्ञानी भी भक्त ही है। इन सबमें भी-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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