यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 341

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

षष्ठम अध्याय

तपस्वी अभी योग को ढालने में प्रयत्नशील है। कर्मी केवल कर्म जानकर करता भर है। ये गिर भी सकते हैं; क्योंकि इन दोनों में न समर्पण है और न अपनी हानि-लाभ देखने की क्षमता; किन्तु ज्ञानी योग की परिस्थितियों को जानता है, अपनी शक्ति समझता है, उसकी जिम्मेदारी उसी पर है और निष्काम कर्मयोगी तो इष्ट के ऊपर अपने को फेंक चुका है, वह इष्ट सँभालेगा। परमकल्याण के पर पर ये दोनों ठीक चलते हैं; किन्तु जिसका भार वह इष्ट सँभालता है, वह इन सबसे श्रेष्ठ है; क्योंकि प्रभु ने उसे ग्रहण कर लिया है। उसका हानि-लाभ वह प्रभु देखता है। इसलिये योगी श्रेष्ठ है। अतः अर्जुन! तू योगी बन। समर्पण के साथ योग का आचरण कर।

योगी श्रेष्ठ है; किन्तु उनसे भी वह योगी सर्वश्रेष्ठ है, जो अन्तरात्मा से लगता है। इसी पर कहते हैं-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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