विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्याय
अब यदि दैवी सम्पद् का अर्जन, सद्गुरु का ध्यान, इन्द्रियों का संयम, श्वास का प्रश्वास में हवन, प्रश्वास का श्वास में हवन, प्राण-अपान की गति का निरोध खेती करने से होता हो; व्यापार नौकरी राजनीति करने से होता हो तो आप करिये। यज्ञ तो ऐसी क्रिया है, जो पूर्ण होते ही तत्क्षण परब्रह्म में प्रवेश दिला देती है। बाह्य किसी भी कार्य से आप तत्क्षण ब्रह्म में प्रवेश पा जाते हों तो कीजिये। वस्तुतः यह सब-के-सब यज्ञ चिन्तन की अन्तःक्रियाएँ हैं, आराधना का चित्रण है, जिससे आराध्यदेव विदित होता है। यज्ञ उस आराध्य तक की दूरी तक करने की निर्धारित प्रक्रिया-विशेष है। यह यज्ञ श्वास-प्रश्वास, प्राणायाम इत्यादि जिस क्रिया से सम्पन्न होते हैं, उस कार्य-प्रणाली का नाम कर्म है। कर्म का शुद्ध अर्थ है-‘आराधना’, ‘चिन्तन’।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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