यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 236

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


इन बस यज्ञों को तू ‘कर्मजान् विद्धि’-कर्म से उत्पन्न हुआ जान। यही पहले भी कह आये हैं-‘यज्ञः कर्मसमुद्भवः’ (3/14)। उन्हें इस प्रकार क्रियातम्क चलकर जान लेने पर (अभी बताया था, यज्ञ करके जिनका पाप नष्ट हो चुका हो, वही यज्ञ के यथार्थ ज्ञाता हैं) अर्जुन! तू ‘विमोक्ष्यसे’-संसार-बन्धन से पूर्णतः छूट जायेगा। यहाँ योगेश्वर ने कर्म स्पष्ट कर दिया। वह हरकत कर्म है, जिससे उपर्युक्त यज्ञ पूर्ण होते हैं।

अब यदि दैवी सम्पद् का अर्जन, सद्गुरु का ध्यान, इन्द्रियों का संयम, श्वास का प्रश्वास में हवन, प्रश्वास का श्वास में हवन, प्राण-अपान की गति का निरोध खेती करने से होता हो; व्यापार नौकरी राजनीति करने से होता हो तो आप करिये। यज्ञ तो ऐसी क्रिया है, जो पूर्ण होते ही तत्क्षण परब्रह्म में प्रवेश दिला देती है। बाह्य किसी भी कार्य से आप तत्क्षण ब्रह्म में प्रवेश पा जाते हों तो कीजिये।

वस्तुतः यह सब-के-सब यज्ञ चिन्तन की अन्तःक्रियाएँ हैं, आराधना का चित्रण है, जिससे आराध्यदेव विदित होता है। यज्ञ उस आराध्य तक की दूरी तक करने की निर्धारित प्रक्रिया-विशेष है। यह यज्ञ श्वास-प्रश्वास, प्राणायाम इत्यादि जिस क्रिया से सम्पन्न होते हैं, उस कार्य-प्रणाली का नाम कर्म है। कर्म का शुद्ध अर्थ है-‘आराधना’, ‘चिन्तन’।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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