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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
चतुर्थ अध्याय
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।2।।
इस प्रकार किसी महापुरुष द्वारा संस्काररहित पुरुषों की सुरा में, सुरा से मन मे, मन से इच्छा में और इच्छा तीव्र होकर क्रियात्मक आचरण में ढलकर यह योग क्रमशः उत्थान करते-करते राजर्षि श्रेणी तक पहुँच जाता है, उस अवस्था में जाकर विदित होता है। इस स्तर के साधक में ऋद्धियों-सिद्धियों का संचार होता है। यह योग इस महम्वपूर्णकाल में इसी लोक (शरीर) में प्रायः नष्ट हो जाता है। इस सीमा-रेखा को कैसे पार किया जाय? क्या इस विशेष स्थल पर पहुँचकर सभी नष्ट हो जाते हैं? श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं, जो मेरे आश्रित है, मेरा प्रिय भक्त है, अनन्य सखा है वह नष्ट नहीं होता-
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