विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याय
बहुधा गीताप्रेमी व्याख्ताओं ने इस अध्याय को ‘कर्मयोग’ नाम दिया है; किन्तु यह संगत नहीं है। दूसरे अध्याय में योगेश्वर ने कर्म का नाम लिया। उन्होंने कर्म के महत्व का प्रतिपादन कर उसमें कर्मजिज्ञासा जागृत की और इस अध्याय में उन्होंने कर्म को परिभाषित किया कि यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। सिद्ध है कि यज्ञ कोई निर्धारित दिशा है। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी किया जाता है, वह इसी लोक का बन्धन है। श्रीकृष्ण जिसे कहेंगे, वह कर्म ‘मोक्ष्यसेऽशुभात्’-संसार-बन्धन से छुटकारा दिलानेवाला कर्म है। श्रीकृष्ण ने यज्ञ की उत्पत्ति को बताया। वह देता क्या है? उसकी विशेषताओं का चित्रण किया। यज्ञ करने पर बल दिया। उन्होंने कहा, इस यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। जो नहीं करते वे पापायु, आराम चाहनेवाले व्यर्थ जीते हैं। पूर्व होनेवाले महर्षियों ने भी इसे करके ही परम नैष्कम्र्य-सिद्धि को पाया। वे आत्मतृप्त हैं, उनके लिये कर्म की आवश्यकता नहीं है फिर भी पीछेवालों के मार्गदर्शन के लिये वे भी कर्म में भली प्रकार लगे रहते थे। उन महापुरुषों से श्रीकृष्ण ने अपनी तुलना की कि मेरा भी अब कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं है; किन्तु मैं भी पीछेवालों के हित के लिये ही कर्म में बरतता हूँ। श्रीकृष्ण ने स्पष्ट अपना परिचय दिया कि वे एक योगी थे।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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