यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 178

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


निष्कर्ष-

बहुधा गीताप्रेमी व्याख्ताओं ने इस अध्याय को ‘कर्मयोग’ नाम दिया है; किन्तु यह संगत नहीं है। दूसरे अध्याय में योगेश्वर ने कर्म का नाम लिया। उन्होंने कर्म के महत्व का प्रतिपादन कर उसमें कर्मजिज्ञासा जागृत की और इस अध्याय में उन्होंने कर्म को परिभाषित किया कि यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। सिद्ध है कि यज्ञ कोई निर्धारित दिशा है। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी किया जाता है, वह इसी लोक का बन्धन है। श्रीकृष्ण जिसे कहेंगे, वह कर्म ‘मोक्ष्यसेऽशुभात्’-संसार-बन्धन से छुटकारा दिलानेवाला कर्म है।

श्रीकृष्ण ने यज्ञ की उत्पत्ति को बताया। वह देता क्या है? उसकी विशेषताओं का चित्रण किया। यज्ञ करने पर बल दिया। उन्होंने कहा, इस यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। जो नहीं करते वे पापायु, आराम चाहनेवाले व्यर्थ जीते हैं। पूर्व होनेवाले महर्षियों ने भी इसे करके ही परम नैष्कम्र्य-सिद्धि को पाया। वे आत्मतृप्त हैं, उनके लिये कर्म की आवश्यकता नहीं है फिर भी पीछेवालों के मार्गदर्शन के लिये वे भी कर्म में भली प्रकार लगे रहते थे। उन महापुरुषों से श्रीकृष्ण ने अपनी तुलना की कि मेरा भी अब कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं है; किन्तु मैं भी पीछेवालों के हित के लिये ही कर्म में बरतता हूँ। श्रीकृष्ण ने स्पष्ट अपना परिचय दिया कि वे एक योगी थे।



Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः