गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 411

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

विंश: सन्दर्भ:

20. गीतम्

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स्मर-शर-सुभग-नखेन सखीमवलम्ब्य करेण सलीलम्।
चल वलय-क्वणितैरवबोधय हरिमपि निजगतिशीलम्॥
मुग्धे.... ॥7॥[1]

अनुवाद- तुम्हारे करकमल के रमणीय पञ्चनख रति-रणोपयोगी मदन के पंचबाण स्वरूप हैं। इनसे अपनी सखी का आश्रय करके तुम लीलापूर्वक चलो। प्रख्यात शीलमय श्रीहरि को भी अपने वलय की क्वणित ध्वनि से अवबोध करा दो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- स्मर-शर-सुभग-नखेन (स्मरस्य कामस्य शराइव सुभगा: शोभना नखा यस्य तादृशेन, तव पञ्च नखा एव सम्मोहनादीनि कामास्त्राणि इतिभाव:) करेण (हस्तेन) सलीलं (सविलासं यथा तथा) सखीम् अवलम्ब्य चल (गच्छ) [गत्वाच] वलयक्वणितै: (कंणसिञ्जनै:) निजगतिशीलं (निजगतौ त्वत्प्राप्तौ शीलं समाधि: चित्तैकाग्रतेति यावत यस्य तादृशं हरिमपि (हरिञ्च) अवबोधय (ज्ञापय, रणाय सावधानं कुरु इति भाव:) [समीचीनो योद्धाहि प्रतिभटमवहितं कृत्वैव युध्यते इत्यर्थ:] ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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