गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 410

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

विंश: सन्दर्भ:

20. गीतम्

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पद्यानुवाद
ज्ञात सखी से लज्जित कैसे,
रति-रण-हित सज्जित है जिससे,
किंकिणी मिस बजती है जैसे।
मेरे स्मरकी सकल भुवन में,
चल सखि! चल घनश्याम सदन में॥

बालबोधिनी- सखी श्रीराधा जी से कहती है कि अब क्यों ठसक रही हो, तुम्हारी अभिलाषा तो हद के पार चली गयी है। फिर ठहराव क्यों? श्रीकृष्ण के साथ अभिसार करने में कैसी लज्जा, तुम्हारी सखियाँ ही हैं, बस यहाँ और कोई नहीं है। व्यर्थ ही क्यों कोप कर रही हो। तुम्हारी सभी सखियों को यह बात अच्छी तरह मालूम हो गई है कि तुम्हारा शरीर रतिरूप संग्राम के लिए तत्पर है। यह शरीर अलंकारों से मण्डित हो रहा है। अर्थात रति-क्रीड़ा उपयोगी सम्पूर्ण उपादानों से विभूषित हो रहा है। युद्ध की वरांगना बनकर तुम प्रस्तुत हो रही हो। ठीक ही तो है जिस तरह युद्ध के लिए प्रयाण के समय विविध वाद्य बजाये जाते हैं। उसी तरह जब रति-रण के लिए तुम प्रस्थान करोगी तो उस समय करधनी में संलग्न घुँघरू बजने लगेंगे। उसी डिण्डिम घोष को करती हुई तुम लाज छोड़कर रस के प्रवाह में प्रवाहित होकर श्रीहरि के सन्निकट अनुराग के साथ अभिसरण करो। चलो, हे चण्डि! संकेत स्थल की ओर उन्मुख हो।

रण के लिए उद्यत श्रीराधा के लिए चण्डी विशेषण उचित ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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